March 16, 2009

तह नहीं, सतह पर

पिछले कुछ दिनों से टीवी चैनलों में पाकिस्तान की खबर छाई हुई थी...नवाज़ शरीफ का लॉन्ग मार्च कहां तक पहुंचा, इसकी पल पल की जानकारी पाकिस्तानी टीवी चैनलों के ज़रिए दिखाई जा रही थी...सोमवार को चैनलों ने खबर चलानी शुरू की कि नवाज़ के लॉन्ग मार्च से पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी डर गए हैं...नवाज़ जीत गए हैं और पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पद पर इफ्तिक़ार मोहम्मद चौधरी को फिर बिठाया जाएगा...जस्टिस चौधरी वही हैं, जिन्हें पाकिस्तान में आपातकाल लागू करते वक्त तब के राष्ट्रपति और सेना प्रमुख रहे जनरल परवेज मुशर्रफ ने बर्खास्त कर दिया था...
चैनल इस खबर को ताने हुए थे, लेकिन खबर की तह तक वो नहीं पहुंचे...ज़रदारी की हार और नवाज़ की जीत के हेडर स्क्रीन के ऊपर दनादन चल रहे थे, लेकिन खबर को इन चैनलों के लोग पकड़ नहीं सके...खबर ये थी कि जस्टिस चौधरी और अन्य बर्खास्त जजों को 22 मार्च से बहाल किया जाएगा...इससे पहले 21 मार्च को मौजूदा चीफ जस्टिस अब्दुल हमीद डोगर रिटायर होंगे...खबर ये थी कि ज़रदारी ने नवाज़ से शिकस्त नहीं खाई...उन्होंने अब तक परवेज मुशर्रफ के खास माने जाने वाले जस्टिस डोगर को कार्यकाल पूरा करने दिया...दरअसल बेनज़ीर भुट्टो जब पाकिस्तान लौटी थीं तो खबर ये थी कि मुशर्रफ और उनके बीच डील हुई है...इस डील की खबर में ये भी था कि मुशर्रफ और उनके अधीन सेना पीपीपी को जीतने का पूरा मौका देगी, लेकिन पीपीपी कभी भी मुशर्रफ के लिए गए फैसलों पर सवाल नहीं उठाएगी...पहले बेनज़ीर लौटीं, फिर आसिफ अली ज़रदारी आए और बेनज़ीर की हत्या के बाद पीपीपी की कमान पिछले दरवाजे से थाम ली...
शायद न्यूज़ चैनलों को ये पुरानी खबर याद नहीं थी, सो ज़रदारी के झुकने और नवाज़ के जीतने की खबर तन कर चल रही थी...यानी तह तक कोई नहीं था, सतह पर इस खबर से बैटिंग की जा रही थी...कौन किसे पछाड़ सकता है, उस पर सब जुटे हुए थे...पाकिस्तानी पत्रकारों का फोनो चल रहा था और बलिहारी इन पाकिस्तानी पत्रकारों की भी कि उनकी भी नज़र सतह पर ही थी...ज़रदारी ने किस तरह मान ली नवाज़ की मांग, ये किसी की समझ में नहीं आ रहा था...सतह पर बैटिंग और एक दूसरे को पटकनी देने का सिलसिला दोपहर बाद तक जारी रहा, लेकिन असल खबर खो चुकी थी और इसे खोजने की ज़हमत किसी ने नहीं उठाई...

March 13, 2009

न्यूज़ सेंस को ऐसे करें डेवलप

अपने पोस्ट खबर की खिचड़ी ऐसे पकाएं में मैंने डेस्क के साथियों को बताया था कि टीवी की किसी खबर को विजुअली कैसे अच्छा बना सकते हैं....इस किस्त में बात करेंगे न्यूज़ सेंस की...क्योंकि बिना न्यूज़ सेंस के खबर को किस एंगल से चलाना है, ये तय नहीं किया जा सकता...
न्यूज़ सेंस या खबर को पकड़ने का एंगल कोई किसी को सिखा नहीं सकता...इसे डेवलप करना पड़ता है...न्यूज़ सेंस डेवलप करने के लिए कम से कम दो अखबार पढ़ने चाहिए और एक ही खबर को दोनों ने किस तरह लिखा है, इस पर ध्यान देना चाहिए...मेरे हिसाब से डेस्क पर काम करने के इच्छुक नए लोगों को इंडियन एक्सप्रेस और अमर उजाला पढ़ना चाहिए...इंडियन एक्सप्रेस की कई खबरें मूल खबर के अंदर से निकालकर बनाई जाती हैं...इसी तरह अमर उजाला में बड़ी स्टोरीज की कई साइड स्टोरीज देने का चलन है...इनके अलावा कोलकाता से प्रकाशित होने वाला अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ भी इस काम में मदद कर सकता है...डेस्क के साथियों को ये सलाह भी दे रहा हूं कि वे अखबार पढ़ें तो हर पन्ने को और यहां तक कि कॉलम्स को भी पढ़ें...इससे ज्ञान भी बढ़ता है और न्यूज़ सेंस भी डेवलप होता है...इनके अलावा इंटरनेट तो है ही...खुद को नेट सैवी बनाना भी आज मीडिया की दुनिया में चमकने के लिए जरूरी है...तो ये थी खबर की खिचड़ी पकाने की दूसरी किस्त...सिलसिला चलता रहेगा...

March 10, 2009

कहानी घर-घर के बाँकों की

इस शीर्षक के लिए एकता कपूर से क्षमायाचना...कॉपीराइट का मामला है भाई, लेकिन क्या करें, मीडिया में मेरे जैसे लोग उठाईगीर ही होते हैं...सो इस कहानी के लिए यह शीर्षक सधन्यवाद उनके सौजन्य से लेते हैं और शुरू करते हैं कहानी घर-घर के बाँकों की... विक्रम ने वेताल को पीठ पर फिर लादा और श्मशान की ओर चल दिया...रास्ता लंबा था...पीठ पर टंगे वेताल ने फिर एक कहानी विक्रम को सुनानी शुरू कर दी...वेताल बोला...सुनो विक्रम, दो बाँकों की इस नई कहानी को...इससे तुम्हें थकान नहीं होगी और मुझे आसानी से श्मशान तक पहुंचा सकोगे...वेताल की कहानी इस प्रकार थी - दो बाँके थे...एक ही घर में...दोनों लड़ते रहते थे...सुबह से रात तक बाँकों की जंग होती रहती थी...इन बाँकों के साथ कुछ छोटे बाँके भी थे...ये छोटे बाँके भी इस जंग में अपने-अपने हिसाब से मौजूदगी दर्ज कराते रहते थे...झगड़ा छोटी-छोटी बातों पर होता था...लेकिन इन छोटी बातों पर होने वाली जंग कई बार लंबी खिंचती थी...दोनों बाँके इस जंग को जीतने पर आमादा रहते...कैसे एक-दूसरे को पटकनी दी जाए, इस पर हमेशा चिंतन मनन चलता रहता था...रात में नींद में भी दिमाग में चालें आती रहती थीं...घर के बड़े बुजुर्ग परेशान...कैसे थमे यह घमासान...बड़े जतन किए...जंग जब शुरू हुई तो समझाया...कभी डांटा, लेकिन एक बाँका अपनी जांघों पर थाप दे तो भला दूसरा कैसे चुप रहे...सारे बाँके अपना नंबर बनाने और दूसरे का पीछे से बिगाड़ने का काम करते...झगड़ा था उस ज़मीन के लिए, जिसकी पैदावार से बाँकों के परिवार पेट भरते थे...परिवार बड़ा था...इसलिए ज़मीन से कम से कम इतनी पैदावार होनी ज़रूरी थी कि खर्चा चलता रहे और कर्ज़ न बढ़े...लेकिन बाँकों को कौन समझाए...हर बार कम पैदावार का ज़िम्मेदार एक-दूसरे को वो ठहराते...एक बीज बोता, तो दूसरा उन्हें निकाल फेंकने का पूरा जतन करता...एक की फसल थोड़ी उगती तो दूसरा सोचता कि कैसे इसे काट लिया जाए...काटने और फेंकने की यह जंग जारी रही...जंग चल रही है...पता नहीं कभी खत्म होगी भी या नहीं...सब यही कहते हैं कि खेत (यानी बचा खुचा) सकुशल है... कहानी सुनाने के बाद वेताल ने फिर विक्रम के सामने एक सवाल दाग दिया...पूछा कौन हैं ये बाँके और किस घर की कहानी है ये...जानते हुए भी नहीं बताओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे...विक्रम रुका...धोती के फेंटे से एक पुड़िया निकाली...कहा, तुम्हारी कहानी से वैसे ही सिर फटा जा रहा है...ज़रा डिस्प्रिन खा लूं...वैसे मेरा भी एक सवाल है...सवाल ये कि बाँकों वाले उस घर में डिस्प्रिन की खपत कितनी थी ? आप भी बूझिए...कौन से घर की कहानी है ये और दोनों बाँके कौन हैं...

March 9, 2009

ख़बर की खिचड़ी ऐसे पकाएं

पिछले दिनों मैंने एक ब्लॉग पोस्ट किया था, जिसका शीर्षक गर्त में पत्रकारिता था...मैंने उसमें रिपोर्टर्स के स्टोरी देने के तौर तरीकों पर सवाल उठाए थे....मेरे कई साथी इससे आहत हुए...एक से मैंने बाकायदा माफी भी मांगी...आज ये पोस्ट इसलिए लिख रहा हूं कि पत्रकारिता को गर्त में धकेलने वाले अकेले रिपोर्टर नहीं हैं...इंस्टीट्यूट्स से ताज़ा ताज़ा निकले और डेस्क पर आने वाले भी आधी अधूरी जानकारी के साथ आते हैं...पहली वजह यही है कि वे पढ़ते लिखते नहीं...टीवी पत्रकारिता का कोर्स वे करते हैं, लेकिन टीवी क्या है, इसकी खबरें कैसे चलती हैं, ये ज़्यादातर जगह उन्हें बताया नहीं जाता...स्क्रिप्ट कैसी होनी चाहिए, कैसे इसे catchy बनाया जाए, ये उन्हें पता नहीं होता...आज ये ब्लॉग मैं ऐसे ही साथियों के लिए लिख रहा हूं...उम्मीद है मेरा लिखा उनके काम आएगा...
1. पहली बात तो ये कि जो भी खबर बनाएं, उसके लिए पहले visuals देखें....visuals के मुताबिक ही टीवी की स्क्रिप्ट लिखी जाती है....आपने पहले अति उत्साह में स्क्रिप्ट लिख ली और उसके मुताबिक visual नहीं मिले तो आपका अच्छा लिखा हुआ भी बेकार हो जाएगा...टीवी चूंकि दृश्य माध्यम है, इस वजह से visuals के साथ जितना खेलेंगे, उतना ही दर्शकों को अपनी खबर से आप जोड़ सकेंगे...लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि आपकी स्क्रिप्ट में नाटकीयता न हो...ज़्यादा नाटकीयता दर्शक पकड़ लेता है और आपकी खबर उसे हल्की लगने लगती है...
2. टीवी पर खबर को एंकर विजुअल, जिसे कहीं कहीं एसटीडी वीओ कहा जाता है, एंकर बाइट और पैकेज के तौर पर चलाया जाता है...डेस्क में खबर आते ही पहले उसे एंकर विजुअल या एंकर बाइट के तौर पर एयर किया जाता है और बाद में ज़रूरी हुआ तो इसे पैकेज में कन्वर्ट किया जाता है...पैकेज में वॉयस ओवर और बाइट होते हैं...मैंने कई साथियों को देखा कि वो बिना एंकर लिंक लिखे ही वीओ और बाइट के ज़रिए पैकेज लिख देते हैं...लेकिन मुझे लगता है कि किसी भी पैकेज में एंकर से पहला वीओ, उस वीओ से पहली बाइट फिर बाइट से दूसरा वीओ, फिर दूसरी बाइट और फिर फाइनल वीओ जुड़े होते हैं...अगर आपका एंकर catchy है तो आप की ख़बर देखने के लिए दर्शक मजबूर होगा, वरना पैकेज चाहे कितना ही अच्छा हो, दर्शक अपने रिमोट के ज़रिए दूसरे चैनल पर भी जा सकता है...
3. अब बात editing की...एडिटिंग में जम्प का ध्यान रखने पर और visuals का तारतम्य होने पर ही कोई स्टोरी अच्छी बनती है...अमूमन जम्प में टाइम जम्प, लोकेशन जम्प, कलर जम्प का खास ध्यान रखना पड़ता है...अगर आपने पहले दिन का फुटेज लगाया, फिर रात या शाम का और फिर दिन का फुटेज लगाया तो ये टाइम जम्प होता है...लोकेशन जम्प में अगर आप किसी शख्स को पहले कहीं और, फिर कहीं और, उसके बाद पहली वाली लोकेशन पर दिखाते हैं तो आपकी स्टोरी ख़राब हो जाती है...कलर जम्प भी ऐसा ही होता है...अगर आप नीला रंग दिखा रहे हैं, फिर आप बैंगनी और फिर नीले पर आ जाएं तो ये कलर जम्प होता है...एक और जम्प एक्सिस जम्प कहलाता है...एक्सिस जम्प में किसी व्यक्ति या जगह को पहले बाएं से दिखाएं, फिर दूसरे शॉट में उसके दाएं आ जाएं तो ये एक्सिस जम्प कहलाएगा...होना ये चाहिए कि कैमरा घूमे...यानी पहले बाएं, फिर सामने और फिर दाएं आए...
4. कई जगह अंग्रेज़ी में बाइट होती है तो उसका पैरा डब करने का चलन है, लेकिन मुझे लगता है कि इससे जो बाइट है उसकी आत्मा मर जाती है...ठीक वैसे ही, जैसे किसी दूसरी भाषा की फिल्म को डब करने पर होता है...पैरा डब की जगह अगर उस व्यक्ति की बोली जा रही बातों का ट्रांसलेशन दिया जाए तो ये अच्छा लगता है...
पहली किस्त में इतना ही...

March 8, 2009

मान लिया मुशर्रफ ने कि दाउद पाक में

"Even if he (Dawood Ibrahim) is handed over, relations (between India and Pakistan) will not improve. I challenge." Former Pakistan President Pervez Musharraf stated this when asked whether Pakistan could hand over Dawood as a confidence building measure. When suggested that it may be given a try, the retired general said "if we fail, you will hand him over back to us." Musharraf, while interacting at a conclave, earlier claimed that he did not "know at all if he (Dawood) is in Pakistan".

देख रहे हैं आप...कैसे पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति या यूं कहें जबरन राष्ट्रपति बने रहकर अपना उल्लू सीधा करने वाले मुशर्रफ कैसे मान गए कि मोस्ट वांटेड इंटरनेशनल टेररिस्ट दाऊद इब्राहिम पाकिस्तान में है...मुशर्रफ दरअसल भारतीय मीडिया के सवालों के जाल में घिर गए थे...अब घिरने वाला आदमी जब भी बोलता है तो सोच नहीं पाता कि क्या बोल रहा है...ऊपर मुशर्रफ का जो बयान दिया गया है, वो उन्होंने दिल्ली में दिया है...उनके इस बयान से साफ है कि पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. दाऊद को पाल पोस रही है...गौर कीजिए, क्या कहा मुशर्रफ ने...When suggested that it may be given a try, the retired general said "if we fail, you will hand him over back to us."

देखिए, ऊपर अंग्रेज़ी में जो लिखा है...गौर कीजिए इस पर....लेकिन सवाल ये है कि दिल्ली में अमेरिकी दूतावास के लोगों ने क्या इस पर गौर किया है...वो अमेरिका, जिसे दाऊद की तलाश है....भारत को भी ये मोस्ट वांटेड आतंकी चाहिए...दाऊद के बारे में भारतीय खुफिया एजेंसियों ने कई बार पाकिस्तान को सबूत दिए हैं...बताया गया है कि वो अपने भाइयों और गुर्गों के साथ कराची के क्लिफटन इलाके के एक शानदार बंगले में रहता है...लेकिन पाकिस्तान की किसी भी सरकार ने इसे नहीं माना....दाऊद पर 1993 में मुंबई में धमाकों के ज़रिए दो सौ से ज़्यादा लोगों की जान लेने का आरोप है...लेकिन अपने यहां उसका वजूद होने से ही पाकिस्तान इनकार करता रहा है...कहता है, क्लिफटन के जिस बंगले का नंबर दिया गया, वहां कोई और रहता है...लेकिन अब मुशर्रफ ने गलती से ही सही, मान लिया है कि दाऊद इब्राहिम उनके देश की मेहमाननवाज़ी का लुत्फ उठा रहा है...मुशर्रफ साहब, आप पाकिस्तानी सेना के सबसे बड़े ओहदे पर रहे हैं और अब जब गलती से ही सही हकीकत आप उगल चुके हैं तो अपने डिप्टी रहे जनरल अशफाक परवेज कियानी साहब से कहिए कि वो दाऊद को सीमा के इस पार भिजवा दें...अदालत का सामना उसे करने दें....आप दावा कर रहे हैं कि दाऊद को सौंपने के बाद भी भारत और पाकिस्ता के बीच रिश्ते नहीं सुधरेंगे...लेकिन आपका ये दावा उसी तरह कहीं नहीं ठहरता, जैसा दाऊद को लेकर अब तक के आपके दावे नहीं टिके हैं...

March 5, 2009

ये कैसा सेंसर

मैं जिन ब्लॉग्स को फॉलो करता हूं, उनमें से एक है सदी के महानायक का...सदी के महानायक यानी अमिताभ बच्चन...अमिताभ इसमें हर रोज़ कुछ न कुछ लिखते हैं और ब्लॉग पोस्ट किए जाने के समय को देखकर कभी कभी अचरज होता है कि आखिर इस उम्र में इतनी एनर्जी उन्हें कहां से और कैसे मिलती है...एक पोस्ट में देखा था...रात तीन बजे के आसपास का समय था...उनके ब्लॉग से ही मेरे इस पोस्ट का शीर्षक निकला है...दरअसल अमिताभ जो भी पोस्ट लिखते हैं, उस पर तमाम कमेंट आते हैं...उनके एक फैन ने कनाडा के वैंकूवर से अपना एक कमेंट दिया...बिग बी की खूब तारीफ करते इस पोस्ट में उसने लिखा कि फिल्म शोले उसे इतनी पसंद है कि जितनी बार भी देखे, मन नहीं भरता...कमेंट लंबा था और इंटरेस्टिंग भी...मैं पढ़ता गया...वैंकूवर वाले अमिताभ के इस फैन ने लिखा है कि शोले देखने का मन हुआ तो वो वॉलमार्ट के स्टोर गया...खोजा तो इस फिल्म की डीवीडी उसे मिल गई और अब जब मन चाहे, वो इस फिल्म को देख सकता है...
लेकिन इसके नीचे उसने जो लिखा है, वो भारत में फिल्मों को सेंसर करने के लिए बैठे लोगों के कान खड़े करने के लिए काफी है...उसने लिखा है कि इस डीवीडी में उसने देखा कि शोले में ठाकुर कैसे अंत में गब्बर सिंह को मार देता है और वीरू से लिपटकर फूट फूटकर रोता है....इस डीवीडी में ये भी है कि ठाकुर के जूतों में सत्येन कप्पू यानी ठाकुर का नौकर कीलें लगा रहा है...मैंने बचपन में शोले देखी थी और आज भी जब मौका मिलता है, देखता हूं...लेकिन ये सीन्स तो कभी नहीं देखे...मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी और ने भी शोले में ऐसे किसी सीन की बात मुझसे की हो...सुना ज़रूर है कि फिल्म में ठाकुर के जूते तले लगे कीलों से गब्बर की मौत का सीन था, लेकिन सेंसर ने इसे पास नहीं किया...तो फिर वॉलमार्ट में मिल रही डीवीडी में ये सीन कैसे है...क्या अनसेंसर्ड शोले चुपचाप विदेश पहुंच गई ? लगता तो ऐसा ही है...हालांकि अमिताभ के उस फैन ने अपने कमेंट में ये नहीं लिखा है कि फिल्म की शुरुआत में सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट दिख रहा है या नहीं...लेकिन इससे ये आशंका ज़रूर बढ़ती है कि जिन सीन्स पर सेंसर की कैंची चलती है, वो चोरी-चोरी, चुपके-चुपके विदेशों में पहुंच रही है...इस आशंका की वजह ये भी है कि जिन सीन्स को सेंसर हटाता है, उनका नेगेटिव नष्ट कराने का कोई नियम नहीं है...यानी प्रोड्यूसर के पास ये फुटेज रहते हैं...साफ है सेंसर सिर्फ भारत की सीमा तक ही है, सीमा पार कुछ भी दिखाया जा सकता है और शायद दिखाया जा भी रहा है...

February 26, 2009

गर्त में पत्रकारिता

पत्रकारिता के लिए भीड़ लगी है...इंस्टीट्यूट्स खुले हुए हैं...लाखों की फीस देकर लोग पत्रकार बन रहे हैं...हर साल हज़ारों पत्रकार ये इंस्टीट्यूट्स पैदा कर रहे हैं...लेकिन ये पत्रकार किसी काम के नहीं...इनका पढ़ने-लिखने से कोई मतलब नहीं...पढ़ने लिखने से मतलब नहीं है सो जानकारी भी नहीं...हर साल जो हज़ारों लोग डिप्लोमा लेकर इस मैदान में उतरते हैं, उनमें से ज़्यादातर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर रुख करते हैं...बस एक ही तमन्ना...या तो रिपोर्टर बन जाएं या एंकर...पर्दे पर दिखने की चाहत ने पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर रखा है...पहले पत्रकार इंस्टीट्यूट्स में नहीं, अखबारों के दफ्तर में बनते थे...बतौर ट्रेनी भर्ती होते थे...एक साल तक अलग-अलग डेस्क पर खूब रगड़ घिसाई होती थी...हेडलाइन लगाना सीखते थे...लेकिन अब सोर्स हो तो इनका कोई मतलब नहीं...इंटर्न के तौर पर भर्ती हो जाओ...फिर अपनी काबिलियत (खासकर चरणवंदना) से ट्रेनी बनो और इसी तरह आगे बढ़ते रहो...लेकिन डेस्क में जो हैं, उनकी मुसीबत इन अधकचरे रिपोर्टर और एंकर कितनी बढ़ाते हैं ये तो वही जानता है जिसके पैर में बिवाई पड़ी हो यानी डेस्क वाला...दिल्ली में एक बार एक रिपोर्टर ने तब के गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्त की बाइट लेने के बाद उनकी पहचान पूछी थी...ये किस्सा वहां के पत्रकारों में खूब चर्चित हुआ था...आम तौर पर एंकर किसी मातम वाले घर का माहौल पूछता या पूछती दिखती है...पहला सवाल होता है, क्या माहौल है ? एक बार कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्यूरिटी की बैठक हो रही थी...तब दीपक चौरसिया आज तक में थे...एंकर ने सवाल पूछा, बताइए दीपक, बैठक में क्या चर्चा हो रही है ? दीपक का जवाब था...मैं मीटिंग में नहीं हूं...मीटिंग के बाद पता चलेगा...
साफ है एंकर या रिपोर्टर जानकारी विहीन है...ऐसे रिपोर्टर हर जगह हैं...और पत्रकारिता को गर्त में ले जा रहे हैं...झुंझलाहट होती है, जब मेरे जैसा डेस्क का आदमी ये देखता है कि रिपोर्टर मैदान से आता है...अपना टेप पटकता है...स्क्रिप्ट के नाम पर टेप का लॉग दे देता है और चल देता है...उसे कहने वाला कोई नहीं...लॉग भी ऐसा कि असली बाइट तो होती ही नहीं...फिर डांट खाता है डेस्क वाला...अमूमन यही कहा जाता है कि रिपोर्टर ने लॉग दिया था, लेकिन टेप आपने क्यों नहीं देखा ?...कहा जाता है, आप लोग मेहनत नहीं करना चाहते...पिछले करीब छह साल से मैं भी यही सुन रहा हूं और डेस्क के अपने साथियों को भी यही सुनते देख रहा हूं...
रिपोर्टर मज़े ले रहा है और डेस्क वालों की किस्मत में रोज़ यही सुनने की सज़ा लिखी हुई है...नए-नए बने रिपोर्टर तो माशा अल्लाह हैं ही, कुछ बड़े रिपोर्टर भी महानता की इस सीढ़ी पर खड़े हैं...एक बड़े रिपोर्टर ने एक पर्सनालिटी के बारे में फोन पर बताया कि वो कोमा में है...ब्रेकिंग चल गई...दूसरा चैनल बताने लगा कि पर्सनालिटी की हालत ठीक है...उसे अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी...यह बात जब उस बड़े रिपोर्टर को बताई गई तो उसने कहा, ठीक है ब्रेकिंग गिरा दीजिए...ये कैसी ब्रेकिंग थी भाई ? पूछने की हिम्मत कौन करे...क्योंकि रिपोर्टर और एंकर ही तो चैनल के चेहरे हैं...डेस्क वाले को कोई नहीं जानता...